दीवाना-वार नाचिये हँसिए गुलों के साथ
काँटे अगर मिलें तो जिगर में चुभोइए
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Javed Akhtar
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Anwar Masood
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रवाँ दवाँ सू-ए-मंज़िल है क़ाफ़िला कि जो था
सबा से आती है कुछ बू-ए-आश्ना मुझ को
फिर क्या जो फूट फूट के ख़ल्वत में रोइए
चला था मैं तो समुंदर की तिश्नगी ले कर
वो ध्यान की राहों में जहाँ हम को मिलेगा
बस्ता-लब था वो मगर सारे बदन से बोलता था
वो आए जाता है कब से पर आ नहीं जाता
मालूम है 'उर्फ़ी' जो है क़िस्मत में हमारी