सिगरटें चाय धुआँ रात गए तक बहसें
और कोई फूल सा आँचल कहीं नम होता है
Ahmad Faraz
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Jaun Eliya
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मैं जब छोटा सा था काग़ज़ पे ये मंज़र बनाता था
कुछ दिन तिरा ख़याल तिरी आरज़ू रही
मैं जिस का जवाब न दे पाऊँ
दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे
इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते
हम हार गए तुम जीत गए हम ने खोया तुम ने पाया
आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है
भूले-बिसरे हुए ग़म याद बहुत करता है
फिर वही रेग-ए-बयाबाँ का है मंज़र और हम