इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
हों घड़े कच्चे तो दरिया में उतर मत जाना
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दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे
हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं
आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है
वो सूरतें जो बड़ी शोख़ हैं सजीली हैं
भूले-बिसरे हुए ग़म याद बहुत करता है
क्या हिज्र में जी निढाल करना
सिगरटें चाय धुआँ रात गए तक बहसें
मौज-ए-हवा आब-ए-रवाँ और ये ज़मीन ओ आसमाँ
वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
हमारे शहर में अब हर तरफ़ वहशत बरसती है
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते
हमें तेरे सिवा इस दुनिया में किसी और से क्या लेना-देना