हमारे शहर में अब हर तरफ़ वहशत बरसती है
सो अब जंगल में अपना घर बनाना चाहते हैं हम
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ग़म के रिश्तों को कभी तोड़ न देना 'वाली'
फिर वही रेग-ए-बयाबाँ का है मंज़र और हम
हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं
जी का जंजाल है इश्क़ मियाँ क़िस्सा ये तमाम करो 'वाली'
मौज-ए-हवा आब-ए-रवाँ और ये ज़मीन ओ आसमाँ
सिगरटें चाय धुआँ रात गए तक बहसें
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते
मैं जिस का जवाब न दे पाऊँ
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
भूले-बिसरे हुए ग़म याद बहुत करता है
मुसल्ला रखते हैं सहबा-ओ-जाम रखते हैं