मौज-ए-हवा आब-ए-रवाँ और ये ज़मीन ओ आसमाँ
इक रोज़ सब जाएँगे थक अल्लाह बस बाक़ी हवस
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इस तरह रोज़ हम इक ख़त उसे लिख देते हैं
उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते
मुसल्ला रखते हैं सहबा-ओ-जाम रखते हैं
मैं जब छोटा सा था काग़ज़ पे ये मंज़र बनाता था
इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
तुझ से बिछड़ के यूँ तो बहुत जी उदास है
हमें तेरे सिवा इस दुनिया में किसी और से क्या लेना-देना
ग़म के रिश्तों को कभी तोड़ न देना 'वाली'
फूल से मासूम बच्चों की ज़बाँ हो जाएँगे
कभी भूले से भी अब याद भी आती नहीं जिन की
आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है