इस तरह रोज़ हम इक ख़त उसे लिख देते हैं
कि न काग़ज़ न सियाही न क़लम होता है
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इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
हम ख़ून की क़िस्तें तो कई दे चुके लेकिन
जी का जंजाल है इश्क़ मियाँ क़िस्सा ये तमाम करो 'वाली'
आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
यूँ तो हँसते हुए लड़कों को भी ग़म होता है
सब बिछड़े साथी मिल जाएँ मुरझाएँ चेहरे खिल जाएँ
छतरी लगा के घर से निकलने लगे हैं हम
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते
सुनो ये ग़म की सियह रात जाने वाली है