आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है
आज से तय है कि दुश्मन को दुआ देना है
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वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
फिर वही रेग-ए-बयाबाँ का है मंज़र और हम
मुसल्ला रखते हैं सहबा-ओ-जाम रखते हैं
बहुत दिन से कोई मंज़र बनाना चाहते हैं हम
जिन की यादें हैं अभी दिल में निशानी की तरह
कभी भूले से भी अब याद भी आती नहीं जिन की
हमारे शहर में अब हर तरफ़ वहशत बरसती है
फूल से मासूम बच्चों की ज़बाँ हो जाएँगे
सिगरटें चाय धुआँ रात गए तक बहसें
जी का जंजाल है इश्क़ मियाँ क़िस्सा ये तमाम करो 'वाली'
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं