आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नईं
तिश्ना-लब हूँ शर्बत-ए-दीदार का
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मुफ़्लिसी सब बहार खोती है
दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है
आज सरसब्ज़ कोह ओ सहरा है
हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है
देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता
किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
न हो क्यूँ शोर दिल की बाँसुली में
कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है
गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में