न हो क्यूँ शोर दिल की बाँसुली में
मलाहत का सलोना कान पहुँचा
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आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
तेरे लब के हुक़ूक़ हैं मुझ पर
तख़्त जिस बे-ख़ानमाँ का दस्त-ए-वीरानी हुआ
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
आज तुझ याद ने ऐ दिलबर-ए-शीरीं-हरकात
हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है
सजन टुक नाज़ सूँ मुझ पास आ आहिस्ता आहिस्ता