मुमकिन है अश्क बन के रहूँ चश्म-ए-यार में
मुमकिन है भूल जाए ग़म-ए-रोज़गार में
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कुछ वक़्त अपने साथ गुज़ारूँगा मैं 'ज़मीर'
मुद्दत हुई है दस्त-ओ-गरेबाँ हुए हमें
किस से करूँ मैं अपनी तबाही का अब गिला
ख़ुदा-रा आ के मिरी लो ख़बर कहाँ हो तुम
ज़ंजीर ज़ुल्फ़-ए-सियाह समुंदर निगाह-ए-शोख़
हर आँख इक सवाल तही-दस्त के लिए