बज़्म-ए-वफ़ा सजी तो अजब सिलसिले हुए
शिकवे हुए न उन से न हम से गिले हुए
Allama Iqbal
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Habib Jalib
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Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Javed Akhtar
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लबों तक आया ज़बाँ से मगर कहा न गया
ज़िंदगी कोह-ए-बे-सुतूँ गोया
शम्अ होगी सुब्ह तक बाक़ी न परवाने की ख़ाक
सहन-ए-चमन में हर-सू पत्थर
सूरज के साथ साथ उभारे गए हैं हम
जल्वा अफ़रोज़ है कअ'बे के उजालों की तरह
ज़िंदा रहने का वो अफ़्सून-ए-अजब याद नहीं
इज्ज़ के साथ चले आए हैं हम 'यज़्दानी'
जादा-ए-ज़ीस्त पे बरपा है तमाशा कैसा
जहाँ कुछ लोग दीवाने बने हैं
इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म