शम्अ होगी सुब्ह तक बाक़ी न परवाने की ख़ाक
अहल-ए-महफ़िल की ज़बाँ पर दास्ताँ रह जाएगी
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जल्वा अफ़रोज़ है कअ'बे के उजालों की तरह
बज़्म-ए-वफ़ा सजी तो अजब सिलसिले हुए
सूरज के साथ साथ उभारे गए हैं हम
ज़िंदा रहने का वो अफ़्सून-ए-अजब याद नहीं
जहाँ कुछ लोग दीवाने बने हैं
इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म
जादा-ए-ज़ीस्त पे बरपा है तमाशा कैसा
तन्हाई में अक्सर यही महसूस हुआ है
सहन-ए-चमन में हर-सू पत्थर
मिला है तपता सहरा देखने को
ज़िंदगी कोह-ए-बे-सुतूँ गोया