मिला है तपता सहरा देखने को
चले थे घर से दरिया देखने को
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इज्ज़ के साथ चले आए हैं हम 'यज़्दानी'
ज़िंदगी कोह-ए-बे-सुतूँ गोया
सहन-ए-चमन में हर-सू पत्थर
जहाँ कुछ लोग दीवाने बने हैं
शम्अ होगी सुब्ह तक बाक़ी न परवाने की ख़ाक
इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म
ज़िंदा रहने का वो अफ़्सून-ए-अजब याद नहीं
जल्वा अफ़रोज़ है कअ'बे के उजालों की तरह
लबों तक आया ज़बाँ से मगर कहा न गया
बज़्म-ए-वफ़ा सजी तो अजब सिलसिले हुए
तन्हाई में अक्सर यही महसूस हुआ है