इज्ज़ के साथ चले आए हैं हम 'यज़्दानी'
कोई और उन को मना लेने का ढब याद नहीं
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Mir Taqi Mir
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मिला है तपता सहरा देखने को
बज़्म-ए-वफ़ा सजी तो अजब सिलसिले हुए
ज़िंदगी कोह-ए-बे-सुतूँ गोया
ज़िंदा रहने का वो अफ़्सून-ए-अजब याद नहीं
लबों तक आया ज़बाँ से मगर कहा न गया
सहन-ए-चमन में हर-सू पत्थर
जादा-ए-ज़ीस्त पे बरपा है तमाशा कैसा
इक ख़ुशी के लिए हैं कितने ग़म
निगाह-ए-नाज़ का हासिल है ए'तिबार मुझे
सूरज के साथ साथ उभारे गए हैं हम