ख़लिश-ए-इश्क़ से बचपन है दिल एक तरफ़
इस पे या-रब ग़म-ए-हस्ती भी उठाना है हमें
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याद में तेरी दो-आलम को भुलाना है हमें
कहते हैं इश्क़ का अंजाम बुरा होता है
अब भी ख़ुदा-परस्त है दैर-ओ-हरम की क़ैद में
उम्र-ए-अबद का मा-हसल इश्क़ का दौर-ए-ना-तमाम
ख़ूबी ओ शान-ए-दिलबरी ग़म्ज़ा-ओ-नाज़ ही नहीं
याद में तेरी दो आलम को भुलाना है हमें
ताइर-ए-ख़स्ता-बाल को दाम भी कुंज-ए-आशियाँ