काग़ज़ की नाव भी है खिलौने भी हैं बहुत
बचपन से फिर भी हाथ मिलाना मुहाल है
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ऐसे लम्हे पर हमें क़ुर्बान हो जाना पड़ा
हर ग़ज़ल हर शेर अपना इस्तिआरा-आश्ना
उतरे तो कई बार सहीफ़े मिरे घर में
आइने में ख़ुद अपना चेहरा है
क्या दुआ-ए-फ़र्सूदा हर्फ़-ए-बे-असर माँगूँ
बम फटे लोग मरे ख़ून बहा शहर लुटे
रेज़ा रेज़ा अपना पैकर इक नई तरतीब में
हर आदमी को ख़्वाब दिखाना मुहाल है
ता-उम्र अपनी फ़िक्र ओ रियाज़त के बावजूद