ता-उम्र अपनी फ़िक्र ओ रियाज़त के बावजूद
ख़ुद को किसी सज़ा से बचाना मुहाल है
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क्या दुआ-ए-फ़र्सूदा हर्फ़-ए-बे-असर माँगूँ
ऐसे लम्हे पर हमें क़ुर्बान हो जाना पड़ा
हर ग़ज़ल हर शेर अपना इस्तिआरा-आश्ना
बम फटे लोग मरे ख़ून बहा शहर लुटे
रेज़ा रेज़ा अपना पैकर इक नई तरतीब में
उतरे तो कई बार सहीफ़े मिरे घर में
काग़ज़ की नाव भी है खिलौने भी हैं बहुत
आइने में ख़ुद अपना चेहरा है
हर आदमी को ख़्वाब दिखाना मुहाल है