ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
मुझ को ये ज़ेबा नहीं अब ज़ात में सिमटा रहूँ
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चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ
हाँ वो मैं ही था कि जिस ने ख़्वाब ढोया सुब्ह तक
पस्पाई
मकीन ही अजीब हैं
दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
उस के अल्फ़ाज़-ए-तसल्ली ने रुलाया मुझ को
इतने चेहरों में मुझे है एक चेहरे की तलाश
सूखे हुए पत्तों में आवाज़ की ख़ुशबू है
असीर-ए-ज़ात-ए-रौशनी
जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप
ख़्वाब-गाहों से अज़ान-ए-फ़ज्र टकराती रही