नए घरों में न रौज़न थे और न मेहराबें
परिंदे लौट गए अपने आशियाँ ले कर
Gulzar
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अंजाम क़िस्सा-गो का
रात फिर दर्द बनी
ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
सफ़ा और सिद्क़ के बेटे
कोई चेहरा न सदा कोई न पैकर होगा
मुसालहत
तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था
शरीफ़-ज़ादा
इक तेरे सिवा