अब ज़मीं पर क़दम नहीं टिकते
आसमाँ पर उक़ाब देखा है
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शुऊर-ओ-फ़िक्र से आगे निकल भी सकता है
मुझ को तेरी चाहत ज़िंदा रखती है
दूर तक इक सराब देखा है
बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की
कूज़ा-गर देख अगर चाक पे आना है मुझे
टेक लगा कर बैठा हूँ मैं जिस बूढ़ी दीवार के साथ
अँधेरों से उलझने की कोई तदबीर करना है
तुम जो छालों की बात करते हो
बे-मुरव्वत हैं तो वापस ही उठा ले शब-ओ-रोज़
सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं
ख़ामोश ज़मज़मे हैं मिरा हर्फ़-ए-ज़ार चुप