बुरा हो आईने तिरा मैं कौन हूँ न खुल सका
मुझी को पेश कर दिया गया मिरी मिसाल में
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ख़राब-ए-दर्द हुए ग़म-परस्तियों में रहे
शिकस्त-ए-व'अदा की महफ़िल अजीब थी तेरी
खुली जब आँख तो देखा कि दुनिया सर पे रक्खी है
खिले हैं फूल की सूरत तिरे विसाल के दिन
यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे
दूर से शहर-ए-फ़िक्र सुहाना लगता है
मंज़र शमशान हो गया है
जाने क़लम की आँख में किस का ज़ुहूर था
घर वाले मुझे घर पर देख के ख़ुश हैं और वो क्या जानें
कभी नुमायाँ कभी तह-नशीं भी रहते हैं
अब आ के क़लम के पहलू में सो जाती हैं बे-कैफ़ी से
ईद उस परी-वश की