हर बात है 'ख़ालिद' की ज़माने से निराली
बाशिंदा है शायद किसी दुनिया-ए-दिगर का
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मैं बात कौन से पैरा-ए-बयाँ में करूँ
ऐ अहल-ए-फ़रासत बढ़ो बे-ख़ौफ़-ओ-हिरास
हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के
क्या अर्ज़-ओ-समा में नज़र आता है ख़लल
ता-उम्र रहे हम गो सरगर्म-ए-अमल
क़ज़ा से क़र्ज़ किस मुश्किल से ली उम्र-ए-बक़ा हम ने
ज़मीं-नज़ाद हैं लेकिन ज़माँ में रहते हैं
फूली है शफ़क़ गो कि अभी शाम नहीं है
दिल है मिरा रमना-ए-ग़ज़ालान-ए-ख़याल
जब दस्त-ए-ख़िज़ाँ से बिखरे शीराज़ा-ए-गुल
भूलों उन्हें कैसे कैसे कैसे