ऐ अहल-ए-फ़रासत बढ़ो बे-ख़ौफ़-ओ-हिरास
हम-राही-ए-तहक़ीक़ हैं बे-शक-ओ-इब्लास
हैं पेच-ओ-ख़म-ए-आसार-ए-सवाद-ए-मंज़िल
आवाज़-ए-जरस वसवसा-हा-ए-ख़न्नास
Wasi Shah
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क्या अर्ज़-ओ-समा में नज़र आता है ख़लल
फूली है शफ़क़ गो कि अभी शाम नहीं है
हर बात है 'ख़ालिद' की ज़माने से निराली
अदयान-ओ-मज़ाहिब ओ मिलल की जंगें
नख़चीर हूँ मैं कश्मकश-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र का
भूलों उन्हें कैसे कैसे कैसे
ताकीद करो ज़मज़मा-संजान-ए-चमन को
गो हम भी कुछ ऐसे उन से ख़ुरसंद नहीं
ज़मीं-नज़ाद हैं लेकिन ज़माँ में रहते हैं
दिल है मिरा रमना-ए-ग़ज़ालान-ए-ख़याल
मैं बात कौन से पैरा-ए-बयाँ में करूँ