अदयान-ओ-मज़हब ओ मिलल की जंगें
शायद ही क़याम-ए-हश्र से पहले रुकें
बंदे तिरे ऐ बार-ए-ख़ुदाया! किस से
इस ताख़्त-ओ-ताराज की फ़रियाद करें
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रहमान-ओ-रहीम है वो रब्ब-ए-इबाद
मैं बात कौन से पैरा-ए-बयाँ में करूँ
अदयान-ओ-मज़ाहिब ओ मिलल की जंगें
ज़मीं-नज़ाद हैं लेकिन ज़माँ में रहते हैं
ता-उम्र रहे हम गो सरगर्म-ए-अमल
जब दस्त-ए-ख़िज़ाँ से बिखरे शीराज़ा-ए-गुल
ऐ अहल-ए-फ़रासत बढ़ो बे-ख़ौफ़-ओ-हिरास
क़ज़ा से क़र्ज़ किस मुश्किल से ली उम्र-ए-बक़ा हम ने
नख़चीर हूँ मैं कश्मकश-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र का
गो हम भी कुछ ऐसे उन से ख़ुरसंद नहीं
फूली है शफ़क़ गो कि अभी शाम नहीं है
हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के