ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
वही दुआ जो नज़र कर रही है लब भी करें
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मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
फ़सील-ए-जिस्म गिरा दे मकान-ए-जाँ से निकल
सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का
सफ़र के बा'द भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
अभी तो आप ही हाइल है रास्ता शब का
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था