तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
आज की रात मुझे ख़्वाब में रोता हुआ देख
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सफ़र के बा'द भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
हम ऐसे सोए भी कब थे हमें जगा लाते
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
ये जो हम तख़्लीक़-ए-जहान-ए-नौ में लगे हैं पागल हैं
मक़ाम-ए-वस्ल तो अर्ज़-ओ-समा के बीच में है
दर-ए-ख़याल भी खोलें सियाह शब भी करें
वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था
सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का
लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं