उस से कहना की धुआँ देखने लाएक़ होगा
आग पहने हुए मैं जाऊँगा पानी की तरफ़
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ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का
लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं
कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
फ़सील-ए-जिस्म गिरा दे मकान-ए-जाँ से निकल
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
ये जो हम तख़्लीक़-ए-जहान-ए-नौ में लगे हैं पागल हैं
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े