कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
कि दिल के साथ ही देखा है डूबना शब का
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चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है
सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
उस से कहना की धुआँ देखने लाएक़ होगा
फ़सील-ए-जिस्म गिरा दे मकान-ए-जाँ से निकल
मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
ये जो हम तख़्लीक़-ए-जहान-ए-नौ में लगे हैं पागल हैं
ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े