सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़याल ओ ख़्वाब में अब के भी घर न रह जाए
Faiz Ahmad Faiz
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शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है
ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक
लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं
मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
दर-ए-ख़याल भी खोलें सियाह शब भी करें