मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
मज़ा तो जब था कि कोई निशान भी पड़ता
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मक़ाम-ए-वस्ल तो अर्ज़-ओ-समा के बीच में है
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
उस से कहना की धुआँ देखने लाएक़ होगा
सफ़र के बा'द भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं
दर-ए-ख़याल भी खोलें सियाह शब भी करें
फ़सील-ए-जिस्म गिरा दे मकान-ए-जाँ से निकल
सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का