मक़ाम-ए-वस्ल तो अर्ज़-ओ-समा के बीच में है
मैं इस ज़मीन से निकलूँ तू आसमाँ से निकल
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ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
सफ़र के बा'द भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
अभी तो आप ही हाइल है रास्ता शब का
हम ऐसे सोए भी कब थे हमें जगा लाते
कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का
वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में