वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
सो मैं ने चुप कराया ख़ामुशी को
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ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक
ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
सफ़र के बा'द भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
फ़सील-ए-जिस्म गिरा दे मकान-ए-जाँ से निकल
अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है
अभी तो आप ही हाइल है रास्ता शब का
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था