वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था
तमाम उम्र उसी दिन की तर्जुमानी है
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हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक
ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का
दर-ए-ख़याल भी खोलें सियाह शब भी करें
वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं
हम ऐसे सोए भी कब थे हमें जगा लाते
मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में