दरवाज़ा खटखटा के सितारे चले गए
ख़्वाबों की शाल ओढ़ के मैं ऊँघता रहा
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रात और दिन के दरमियाँ कोई
हर ख़्वाब काली रात के साँचे में ढाल कर
मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँ
तुम को दावा है सुख़न-फ़हमी का
कब तक पड़े रहोगे हवाओं के हाथ में
सफ़ेद रात से मंसूब है लहू का ज़वाल
चेहरे पे चमचमाती हुई धूप मर गई
ऐनक के शीशे पर
दूर उफ़ुक़ के पार से आवाज़ के पर्वरदिगार
चारों तरफ़ से मौत ने घेरा है ज़ीस्त को
वो मर गई थी
फैले हुए हैं शहर में साए निढाल से