कौन सी ऐसी कमी मेरे ख़द-ओ-ख़ाल में है
आइना ख़ुश नहीं होता कभी मिल कर मुझ से
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मिरी नज़र तो ख़लाओं ने बाँध रक्खी थी
क्या मुसीबत है कि हर दिन की मशक़्क़त के एवज़
नींद आई न खुला रात का बिस्तर मुझ से
ज़मीं से आगे भला जाना था कहाँ मैं ने
हिज्र में इतना ख़सारा तो नहीं हो सकता
तू परिंदों की तरह उड़ने की ख़्वाहिश छोड़ दे
तुम्हें ही सहरा सँभालने की पड़ी हुई है
एक ही दाएरे में क़ैद हैं हम लोग यहाँ
मिसाल-ए-बर्ग किसी शाख़ से झड़े हुए हैं
तेरी दुनिया से ये दिल इस लिए घबराता है
किस प्यास से ख़ाली हुआ मश्कीज़ा हमारा
शिकस्त खा के भी कब हौसले हैं कम मेरे