किस प्यास से ख़ाली हुआ मश्कीज़ा हमारा
दरिया से जो उठ आए हैं सहरा की तरफ़ हम
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मैं अपनी ज़ात में जब से सितारा होने लगा
देर तक कोई किसी से बद-गुमाँ रहता नहीं
हिज्र में इतना ख़सारा तो नहीं हो सकता
एक ही दाएरे में क़ैद हैं हम लोग यहाँ
हर आइने में तिरा ही धुआँ दिखाई दिया
इसी लिए भी नए सफ़र से बंधे हुए हैं
नींद आई न खुला रात का बिस्तर मुझ से
कौन सी ऐसी कमी मेरे ख़द-ओ-ख़ाल में है
यहाँ भला कौन अपनी मर्ज़ी से जी रहा है
अपने बदन से लिपटा हुआ आदमी था मैं
मैं सुन रहा हूँ जो दुनिया सुना रही है मुझे