यहाँ भला कौन अपनी मर्ज़ी से जी रहा है
सभी इशारे तिरी नज़र से बंधे हुए हैं
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चुप-चाप निकल आए थे सहरा की तरफ़ हम
किस प्यास से ख़ाली हुआ मश्कीज़ा हमारा
इसी लिए भी नए सफ़र से बंधे हुए हैं
मिरी तो आँख मिरा ख़्वाब टूटने से खुली
देर तक कोई किसी से बद-गुमाँ रहता नहीं
आई थी उस तरफ़ जो हवा कौन ले गया
ये जो सूरज है ये सूरज भी कहाँ था पहले
गुमराह कब किया है किसी राह ने मुझे
मैं अपनी ज़ात में जब से सितारा होने लगा
मैं ख़ुद को इस लिए मंज़र पे लाने वाला नहीं
शिकस्त खा के भी कब हौसले हैं कम मेरे
क्या मुसीबत है कि हर दिन की मशक़्क़त के एवज़