एक ही फ़नकार के शहकार हैं दुनिया के लोग
कोई बरतर किस लिए है कोई कम-तर किस लिए
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Gulzar
Habib Jalib
Javed Akhtar
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
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काँच की ज़ंजीर टूटी तो सदा भी आएगी
गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने को छू कर किस लिए
मुझे बतलाईए अब कौन सी जीने की सूरत है
ज़िंदगी इतनी परेशाँ है ये सोचा भी न था
उस पेड़ को छुआ तो समर-दार हो गया
एक पैकर यूँ चमक उट्ठा है मेरे ध्यान में
गहरा सुकूत ज़ेहन को बेहाल कर गया
मिटते हुए नुक़ूश-ए-वफ़ा को उभारिए
गुम-सुम हवा के पेड़ से लिपटा हुआ हूँ में
कर्ब के शहर से निकले तो ये मंज़र देखा
अपने माहौल से कुछ यूँ भी तो घबराए न थे