मिरे एहसास के आतिश-फ़िशाँ का
अगर हो तो मिरे दिल तक धुआँ हो
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मैं तो बस ये चाहता हूँ वस्ल भी
उसे सुलझाऊँ कैसे
वो नज़र मेहरबाँ अगर होती
क़द का अंदाज़ा तुम्हें हो जाएगा
बे-हिसी इंसान का हासिल न हो
अगर कुछ ए'तिबार-ए-जिस्म-ओ-जाँ हो
मैं ख़ुद से छुपा लेकिन
ऐ शब-ए-ग़म मिरे मुक़द्दर की
दूर से क्या मुस्कुरा कर देखना
अब अगर इश्क़ के आसार नहीं बदलेंगे
घर से निकलना जब मिरी तक़दीर हो गया