ऐ शाम-ए-हिज्र-ए-यार मिरी तू गवाही दे
मैं तेरे साथ साथ रहा घर नहीं गया
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ऐसा इलाज-ए-हब्स-ए-दिल-ए-ज़ार चाहिए
किसे ख़बर कि है क्या क्या ये जान थामे हुए
इश्क़ में हो के मुब्तिला दिल ने कमाल कर दिया
सड़क के पार चला जा रहा है बचता हुआ
तू ने भी सारे ज़ख़्म किसी तौर सह लिए
उन से भी पूछिए कभी अपनी ज़मीं का कर्ब
अब सोचिए तो दाम-ए-तमन्ना में आ गए
धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी
दस्तक हवा की सुन के कभी डर नहीं गया
फ़ित्ना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा
इसी लिए तो हार का हुआ नहीं मलाल तक