सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं
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तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ
'फ़राज़' तेरे जुनूँ का ख़याल है वर्ना
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
ज़िंदगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ की तरह
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
तअ'ना-ए-नश्शा न दो सब को कि कुछ सोख़्ता-जाँ
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा
दिल मुनाफ़िक़ था शब-ए-हिज्र में सोया कैसा
कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी
कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र