वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
कुल्ली करो हुज़ूर हुआ है दहन ख़राब
Mohsin Naqvi
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Habib Jalib
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Jaun Eliya
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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मुसलमाँ काफ़िरों में हूँ मुसलामानों में काफ़िर हूँ
प्यार अपने पे जो आता है तो क्या करते हैं
नई सदा हो नए होंट हों नया लहजा
जो उन को लिपटा के गाल चूमा हया से आने लगा पसीना
निकली जो रूह हो गए अजज़ा-ए-तन ख़राब
साबित है तन में बादशाही दिल की
मैं ही मोमिन मैं ही काफ़िर मैं ही काबा मैं ही दैर
सारी ख़िल्क़त राह में है और हो मंज़िल में तुम
क्यूँ शौक़ बढ़ गया रमज़ाँ में सिंगार का
पैदल न मुझे रोज़-ए-शुमार उन से दे
महशर में चलते चलते करूँगा अदा नमाज़