पैदल न मुझे रोज़-ए-शुमार उन से दे
मरकब पे लिए गुनह का बार आने दे
मैं घर से लहद तक भी गया हो के सवार
महशर में भी तो मुझ को सवार आने दे
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मैं ही मतलूब ख़ुद हूँ तू है अबस
है सू-ए-फ़लक नज़र तमाशा क्या है
मुसलमाँ काफ़िरों में हूँ मुसलामानों में काफ़िर हूँ
चोरी से दो घड़ी जो नज़ारे हुए तो क्या
ग़फ़लत के तुख़्म बोने वाले उठे
ग़ैर का हाल तो कहता हूँ नुजूमी बन कर
हंगाम-ए-क़नाअ'त दिल-ए-मुर्दा हुआ ज़िंदा
तुम को मालूम जवानी का मज़ा है कि नहीं
वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
महशर में चलते चलते करूँगा अदा नमाज़
कहते हैं कि रौनक़-ए-जमाली हूँ मैं
कुछ लुत्फ़-ए-सुख़न वक़्त-ए-मुलाक़ात नहीं