ग़ैर का हाल तो कहता हूँ नुजूमी बन कर
आप-बीती नहीं मालूम वो नादान हूँ मैं
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शब-ए-माह में जो पलंग पर मिरे साथ सोए तो क्या हुए
खड़े हैं मूसा उठाओ पर्दा दिखाओ तुम आब-ओ-ताब-ए-आरिज़
है हुक्म-ए-आम इश्क़ अलैहिस-सलाम का
है अर्श भी यक फ़र्श क़दम का तेरे
वो बज़्म में हैं रोते हैं उश्शाक़ चौ तरफ़
अफ़्ज़ूँ जो शबाब दम-ब-दम होता है
क्या रोज़-ए-हश्र दूँ तुझे ऐ दाद-गर जवाब
जलसों में ख़ल्वतों में ख़यालों में ख़्वाब में
जितने अच्छे हैं मैं हूँ उन में बुरा
ये मुझ से न पूछ तू ने क्या क्या देखा
वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
रू-ए-ताबाँ माँग मू-ए-सर धुआँ बत्ती चराग़