मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
देर से चाँद निकलना भी ग़लत लगता है
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आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
ये गर्म रेत ये सहरा निभा के चलना है
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
न जाने क्या ख़राबी आ गई है मेरे लहजे में
तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं
वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
मैं इस लिए भी तिरे फ़न की क़द्र करता हूँ