वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
तमाम जिस्म को कासा बना के चलना है
Habib Jalib
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न जाने क्या ख़राबी आ गई है मेरे लहजे में
ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं