तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
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वो अब तिजारती पहलू निकाल लेता है
रौशनी साँस ही ले ले तो ठहर जाता हूँ
तुम्हारे वस्ल का जिस दिन कोई इम्कान होता है
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
ये लग रहा है रग-ए-जाँ पे ला के छोड़ी है
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
बराए-ज़ेब उस को गौहर-ओ-अख़्तर नहीं लगता
फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
अगर कट-फट गया था मेरा दामन