रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
ख़मोशियों के तआवुन से घर चला लेना
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वो अब तिजारती पहलू निकाल लेता है
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
न जाने क्या ख़राबी आ गई है मेरे लहजे में
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं