ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
वही इक ऐसा क़ातिल है जो पेशा-वर नहीं लगता
Habib Jalib
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न जाने क्या ख़राबी आ गई है मेरे लहजे में
मैं रंग-ए-आसमाँ कर के सुनहरी छोड़ देता हूँ
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
ये लग रहा है रग-ए-जाँ पे ला के छोड़ी है
मैं इस लिए भी तिरे फ़न की क़द्र करता हूँ
वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं