मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
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तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं
मैं इस लिए भी तिरे फ़न की क़द्र करता हूँ
तुम मेरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
तन्हाई से बचाव की सूरत नहीं करूँ
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं
ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ